पेड मीडिया का राजनीतिकरण

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भारतीय प्रेस परिषद के अनुसार पेड न्यूज़ किसी उम्मीदवार के प्रचार के पक्ष में नगद या किसी मूल्य के बदले समाचार या लेख के प्रकाशन को संदर्भित करता है।पत्रकारिता और चुनाव प्रचार तंत्र बहुत ही अलग-अलग शब्द है लेकिन जब पत्रकारिता और चुनावी प्रचार तंत्र में कोई अंतर ना रह गया हो तो उससे पेड न्यूज़ कहते हैं।

पेड न्यूज़ में पूंजीपति मीडिया चैनलों को धनराशि या और किसी प्रकार की सेवा देते हैं जिसके बदले वह पूंजीपतियों और मौजूदा सत्ता का महिमा मंडल करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पेड मीडिया का राजनीतिकरण हो चुका है। आजकल न्यूज़ चैनलों पर पत्रकारिता के अलावा सब कुछ होता है। न्यूज़ एंकर और एंकराएं ऐसा लगता है मानो सत्ता पक्ष साक्षात अपनी कृपा समझाने न्यूज़ पर चैनल पर आए हैं।

पूंजीपतियों की छत्रछाया में फल-फूल रहे न्यूज़ चैनलों में क्या हिम्मत जो पूंजीपतियों और सत्ता के खिलाफ उफ कर दे लेकिन हां यदि आम जनता ने अपने हक के लिए और सरकार की नीति विरोध में आवाज उठाई तो सारी मुख्यधारा के राष्ट्रवादी मीडिया अवतरित हो जाती है।

न्यूज़ चैनलों को सत्ता पैसा देगी तो वह चैनल सत्ता के विरोध में कैसे बोल सकेगा। पेड मीडिया वर्तमान में न्यूज़ चैनल की बजाय ट्रोल आर्मी की भूमिका में है।पेड न्यूज़ चैनलों में ऐसी ऐसी पटकथा रची जाती हैं जिनका असली मकसद देश के असल मुद्दों को दबाना होता है। न्यूज़ एंकर द्वारा ऐसे करतब दिखाए जाते हैं कि देश के गांव की जनता ब्रेनवाश हो जाती है और हर पटकथा को सच्च मानकर ग्रहण कर लेती है।

देश के पेड न्यूज़ चैनलों का सच्चाई और तथ्यों से कोई वास्ता नहीं होता है।बस अपने मन में यह थ्योरी बना ली जाती है और बार-बार अपने चैनल पर महीनों तक डिबेट करते रहते हैं और देश के बेरोजगारी, शिक्षा, गरीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार और किसानों के असली मुद्दे दबा देते हैं।

न्यूज़ चैनलों पर सच्चाई से बिल्कुल दूर-दूर तक संबंध नहीं ऐसे अविश्वसनीय अकल्पनीय मुद्दे उठाए जाते हैं जिससे सत्ता से सवाल पूछने की नौबत ना आए और जनता की बात भी दवा दी जाए।न्यूज़ चैनलों को सत्ता पैसा देगी तो चैनल विरोध में कैसे बोल सकेगा इसलिए आज की जरूरत है कि वैकल्पिक स्वतंत्र मीडिया को खड़ा होना चाहिए क्योंकि हमारे देश में गरीब दबे कुचले परेशान लोग हैं भारत की मुख्य धारा की मीडिया में इनका कोई स्थान नहीं है। पेड़ मीडिया तो जनता की आवाज उठाती नहीं इसलिए जनता की आवाज उठाने के लिए स्वतंत्र मीडिया होना चाहिए सोशल मीडिया पर अब देश के असली मुद्दों को उठाने की कोशिश की जा रही है लेकिन जो भी आवाज उठाता है उसकी हर तरह से आवाज दवाई जाती है और फर्जी देशद्रोही के केस में फंसा दिया जाता है। मनजीत पुनिया ,रविंद्र सक्सेना, सुप्रिया शर्मा ,पंकज जयसवाल, आशीष तोमर ,आमिर खान ,असद रिष्वी, सिद्धार्थ भारद्वाज, अजय भदौरिया ,पत्रकार राजदीप सरदेसाई ऐसे ही पत्रकार हैं जो अपनी सच्ची पत्रकारिता के कारण जेल जा चुके हैं।

इस प्रकार अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला हो रहा है और जनता की अभिव्यक्ति की आजादी को नियोजित ,सुनियोजित ढंग से नियंत्रित किया जा रहा है और जो सत्ता पक्ष का या राजनीतिक फायदे के लिए महिमामंडन में लगे रहते हैं उनका बोलबाला है।

वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने बीबीसी न्यूज से कहा है कि”चैनल अखबार निसंदेह प्रोडक्ट हो गए हैं लेकिन प्रोडक्ट में पेड न्यूज की धोखाधड़ी तो नहीं होनी चाहिए, आप पैसा लेते हो तो उसे साफ और स्पष्ट तौर पर विज्ञापन घोषित करना चाहिए। पेड न्यूज़ और सत्ताधारी लोगों की खूब आंख मिचौली चलती रहती है लेकिन पेड न्यूज के कुछ ही चर्चित मामले सामने आए हैं:- पेड न्यूज के मामले में उत्तर प्रदेश के नेता डीपी यादव की पत्नी उमलेश यादव जो राष्ट्रीय परिवर्तन दल की उम्मीदवार थी चुनाव जीत गई थी। लेकिन उन से हारने वाले योगेंद्र कुमार ने प्रेस काउंसिल में उनके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई और अपनी शिकायत में कहा कि दो प्रमुख पेपर दैनिक जागरण अमर उजाला ने मतदान से 1 दिन पहले उमलेश यादव के पक्ष में पेड न्यूज़ प्रकाशित की थी।चुनाव 1 दिन बाद होने थे और चुनाव प्रचार पर रोक लग गई थी ऐसे में इस प्रकार की खबर छापना पत्रकारिता और चुनावी प्रावधानों का उल्लंघन है। इसके बाद 20 अक्टूबर 2011 को 3 चुनाव आयुक्त की कमेटी ने 23 पन्ने के फैसले में उमलेश यादव को अयोग्य ठहराते हुए 3 साल तक चुनाव लड़ने की रोक लगा दी।

नरोत्तम मिश्रा जो मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की सरकार में मंत्री थे।इन पर आरोप था कि 2008 में विधानसभा चुनाव के दौरान 42 ऐसे समाचार या लेख छापे गए थे जो नरोत्तमदास को सीधे तौर पर फायदा पहुंचाने वाले थे और एक ही खबर को तीन प्रमुख अखबारों में छपवाने का आरोप था इसलिए चुनाव आयोग ने 3 साल तक नरोत्तमदास के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी।

शिवराज सिंह चौहान सरकार के दिग्गज नेता नरोत्तम मिश्रा

लेकिन चुनाव आयोग के फैसले धरे के धरे ही रह जाते हैं क्योंकि अब तो अपराध करने वाले भी समझ चुके हैं कि भारत देश में न्याय मिलने में इतना टाइम लग जाता है कि न्याय की आशा करने वाला व्यक्ति जब तक जिंदा है या नहीं इसका कोई अंदाजा नहीं। नरोत्तम मिश्रा का मामला विधानसभा चुनाव 2008 का निर्वाचन आयोग ने उन्हें अयोग्य घोषित किया तब तक हुआ है 2013 का चुनाव जीत चुके थे।

पेड न्यूज को लेकर महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का मामला भी सुर्खियों में रहा था। अशोक चौहान ने 2009 को विधानसभा चुनाव में महाराष्ट्र के नांदेड़ के भोकार विधानसभा सीट से जीत हासिल की थी। हारने बाली निर्दलीय उम्मीदवार माधव राव किन्हालकर ने इनके खिलाफ पेड न्यूज की शिकायत की।माधव राज ने अपनी शिकायत में कहा कि लोकमत अखबार में अशोक पर्व नाम से सप्लीमेंट छपे थे जिनकी भुगतान की जानकारी अशोक चव्हाण ने अपने चुनावी खर्च में नहीं बताई थी।

चुनाव आयोग को विज्ञापन के खर्च का ब्यौरा नहीं देना जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत लागू चुनाव नियम संहिता 1961 का उल्लंघन है।

इन उदाहरणों से यह जाहिर होता है कि चुनाव में नेता अपने प्रचार के लिए पेड न्यूज़ का इस्तेमाल करते हैं जो मतदाताओं को भ्रमित करने का काम करते हैं। इसके लिए केवल पेड़ न्यूज़ चैनल ही जिम्मेदार नहीं है प्रिंट मीडिया भी सत्ता के चुनाव प्रचार में संलग्न रहती है।

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