पुलिस हिरासत में प्रताड़ित करके आरोपियों की जान ले ली जाती है तो क्या पुलिस खुद को कानून से ऊपर मानती है।

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लॉकडाउन में पुलिस ने लोगों को खाना देने अन्य जरूरी सामान देने के प्रशंसनीय काम किए। यह पुलिस की अच्छी छवि को प्रस्तुत करता है। पुलिस ने अपनी जान की परवाह ना करते हुए भी अपना कर्तव्य निभाया है और कई घंटों तक अपने ड्यूटी की है। कुछ पुलिसकर्मी अपना कर्तव्य निभाते निभाते कोरोना काल में शहीद भी हुए हैं। ऐसे पुलिसकर्मियों को बार-बार सलाम करने का मन करता है लेकिन कुछ ऐसे भी पुलिसकर्मी होते हैं जो अपना दोहरा चेहरा लेकर चलते हैं।

पुलिसकर्मी जनता की रक्षा के लिए होते हैं लेकिन कुछ है पुलिसकर्मी भक्षक का काम करते हैं। जब कहीं चोरी हत्या रेप हिंसा जैसी वारदातें होती हैं तो हमें जल्दी से पुलिस बुलाने का ख्याल आता है पर जब इन वारदातों में स्वयं पुलिस ही शामिल हो तो पुलिस प्रशासन पर तो धब्बा लगता ही है इसके साथ साथ जनता का पुलिस न्याय पर से विश्वास उठ जाता है। यह पुलिस का दोहरा चेहरा है या यह कह लो कि शेर की खाल में भेड़िया होते हैं ऐसे पुलिस वाले।

तमिलनाडु के थुथुकुडी जिले में पुलिस हिरासत में पिता और उसके पुत्र को इतना प्रताड़ित किया कि दोनों की मौत हो गई। उन्नाव रेप केस में जब पीड़ित लड़की ने सत्ताधारी विधायक सेंगर का विरोध किया तो पीड़ित लड़की के पिता को जाल में फंसा कर पुलिस हिरासत में कर दिया गया और इतना प्रताड़ित किया कि उसकी मौत हो गई।

2014 में महाराष्ट्र पुलिस ने 25 वर्षीय एगलेनो बेलड्रेस को चोरी के मामले में गिरफ्तार किया था और हिरासत में प्रताड़ित किया और उसकी मृत्यु हो गई 6 साल बाद मुंबई हाई कोर्ट के दखल देने पर महाराष्ट्र पुलिस ने पुलिस आरोपियों को दंड दिया।

बाड़मेर में चोरी के आरोपी पुलिस हिरासत में इतना प्रताड़ित किया कि उसकी मौत हो गई। एमपी मंडला में पुलिस ने एक युवक को इतना प्रताड़ित किया कि उसकी मौत हो गई। केवल यही गिने-चुने केस नहीं है ऐसे किचन में पुलिस हिरासत में आरोपियों की मौत हुई हूं ऐसे अनगिनत केस हो चुके हैं अब तक।

पुलिस की इस बेलगाम प्रताड़ना को लगाम देने के लिए न्यायपालिका ने स्वयं संघ संज्ञान लिया और कुछ नई दिशा निर्देश दिए इनमें से मुख्य निर्देश हैं:-

(१) 2006 में प्रकाश सिंह केस में सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्येक राज्य में एक पुलिस शिकायत प्राधिकरण की स्थापना का निर्देश दिया

(२) कुछ राज्यों जैसे केरल झारखंड हरियाणा पंजाब और महाराष्ट्र ही कर सके हैं मेरे निर्देश पर अमल।

(३)दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी पुलिस कदाचार के मामलों में जांच के लिए एक स्वतंत्र शिकायत प्राधिकरण होने की सिफारिश की।

(४)1996 में डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी को लेकर दिए थे 11 सूत्री दिशा निर्देश:-

*पूछताछ करने वाले पुलिस अपने नाम प्लेट लगा कर रखेंगे।,

*गिरफ्तारी का विवरण रजिस्टर पर दर्ज किया जाएगा जिसमें गिरफ्तारी की तारीख, समय, स्थान का जिक्र घर के किसी सदस्य या किसी सम्मानीय व्यक्ति द्वारा सत्यापित होना चाहिए

*गिरफ्तारी के समय एक गवाह है और गिरफ्तार व्यक्ति के दस्तखत लिए जाएंगे ,।उसे मित्र या रिश्तेदार से एक बार बात करने का मौका दिया जाएगा व्यक्ति को उसके अधिकार की सूचना दी जाएगी।

*गिरफ्तार व्यक्ति की समय-समय पर मेडिकल जांच और वकील से मिलने के अनुमति दी जाएगी।

*ऐसे सभी सूचनाओं को एक केंद्रीय पुलिस नियंत्रण कक्ष में केंद्रीकृत करना होगा गौरतलब है कि इनमें से ज्यादातर निर्देशों क्रिमिनल प्रोसीजर 1973 में शामिल किया गया है।

*इन नियमों के उल्लंघन पर गंभीर कार्रवाई करने और इसे कोर्ट की अवमानना मानने की बात कही गई है।

न्यायपालिका के दिशा निर्देश देने के बावजूद भी यह अपराध थमा नहीं है यह बिल्कुल साफ है कि पुलिस अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर आरोपियों को हिंसात्मक प्रताड़ित करती है जो कानूनी अपराध है और कोर्ट की अवमानना भी लेकिन फिर भी ऐसे पुलिसकर्मियों को किसी प्रकार की कोई सजा नहीं दी जाती है इसलिए इस विषय में सुधार नहीं आए हैं।

पुलिस हिरासत में महिलाओं पर भी जैतारण प्रताड़ना की गई है और यौन हिंसा की गई है नेशनल कैंपियन अगेंस्ट टॉर्चर के मुताबिक 4 महिलाओं की मृत्यु पुलिस हिरासत में हुई है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो एनसीआरबी के मुताबिक 2017 में पुलिस हिरासत में कम से कम 100 लोगों की मौत जिनमें अधिकतम निर्दोष थे और इन्हें 24 घंटों में पेश नहीं किया गया था।

एनसीआरबी के मुताबिक 2001 से 2018 के दौरान पुलिस हिरासत में कुल 1727 लोगों की मौत हो गई है।

पुलिस की पिटाई के चलते हुई 2017 में 5 %, 2016 में 8.7 %, 2015 में 6.2 %, और 2014 में 9.3 %

नेशनल कैंपेन के मुताबिक केवल 2019 में हिरासत के अगेंस्ट टार्चर के दौरान हुई मौत 1731 होते हैं मतलब कि रोजाना पांच मौत।

2000 से 2018 के दौरान पुलिस के खिलाफ 2,041 मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में सिर्फ 344 प्लस पर में ही दोषी पाए गए हैं।

न्यायपालिका के दिशा निर्देशों का सही से पालन नहीं किया जा रहा है इसलिए आज भी कई आरोपियों की पुलिस हिरासत में मौत हो जाती है जो

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