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Wilma Rudolph: एक ऐसी अपंग लड़की थी जो कई परेशानियों को सहते हुए सफलता के मुकाम पर पहुंची । उस लड़की ने नामुमकिन को मुमकिन कर के दिखाया । Wilma Rudolph एक ऐसी गरीब परिवार की ऐसी लड़की थी जिसकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। विल्मा रूडोल्फ की मां नौकरों का काम करती थी। विल्मा रूडोल्फ का जन्म 23 जून 1940 को हुआ था।
Wilma Rudolph का समय से पहले जन्म हो गया था। जिसके कारण वह बहुत कमजोर थी। जन्म देने पर एक स्वस्थ बच्चे का वजन ढाई किलो से 3 किलो के बीच सही माना जाता है लेकिन उनका वजन 2 किलो का था । जिसके कारण वह बहुत बीमार रहती थी और वह निमोनिया बीमारी से भी ग्रस्त रहती थी । वह जब धीरे-धीरे 4 साल की हुई तो उनको पोलियो हो गया था। जिसके कारण उनका इलाज चला । डॉक्टरों ने विल्मा रूडोल्फ को कभी ना चल पाने और कभी ठीक ना हो पानी की बात कही। डॉक्टरों ने हार मान ली। विल्मा रूडोल्फ को सहारा लेकर चलना पड़ा। इस इलाज के लिए बहुत कम हॉस्पिटल रहते थे और उनकी मां उन्हें हर हफ्ते लेकर 80 किलोमीटर दूर इलाज करवाने के लिए ले जाती थी और बहुत दिन तक उनका इलाज चला लेकिन डॉक्टरों ने भी हार मान ली थी । डॉक्टरों ने यह भी कह दिया था कि विल्मा अब कभी अपने पैरों पर नहीं चल सकेंगी। यह बात सुनते ही Wilma Rudolph की मां को थोड़ा बुरा लगा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और इसका घर का इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी और वह कोशिश लगातार करती रही। दिल मां की मां एक सकारात्मक सोच रखने वाली महिला थी। वह हमेशा Wilma Rudolph का ख्याल रखती थी और उन्हें हिम्मत देती थी । वह विल्मा रूडोल्फ को प्रेरणा देती थी कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती है।
Wilma Rudolph जब किसी बच्चों को खेलते देखती थी तो उनका मन भी खेलने का करता था लेकिन इस विकलांग स्थिति को देखकर वह बहुत उदास रहती थी। एक दिन विल्मा ने अपने स्कूल टीचर से ओलंपिक खेल के बारे में बात की लेकिन टीचर ने विल्मा को इस बात का एहसास कराया कि तुम एक विकलांग हो तो तुम खेल कैसे खेल सकती हो। तुम चल भी नहीं सकती तो खेलोगे कैसे। इस बात को सुनते ही Wilma Rudolph बहुत दुखी हो गई और उनकी आंखें भी भर आई। फिर दूसरे दिन Wilma Rudolph को खेलते हुए बच्चों से अलग कर दिया गया। तो विल्मा को अपने मां की याद आ गई। मां कहती थी कि लग्न सच्ची और इरादे बुलंद हो तो कुछ भी कठिन नहीं होता है और 1 दिन मैं भी ओलंपिक में भाग लूंगी और उसे जीत कर भी दिखाऊंगी । अगले दिन विल्मा ने धीरे-धीरे चलने की कोशिश की। उन्हें बहुत दर्द भी हुआ लेकिन विल्मा ने कोई हार नहीं मानी । कई बार तो वह चलते-चलते गिर भी जाती थी और उन्हें चोट भी लग जाती थी।
धीरे धीरे चलने की कोशिश करती रही और गिरती संभालती रही । फिर वह एक पैर में ऊंची हील की जूती पहनकर चलने लगी और बलमा की इस कोशिश को देखते हुए। डॉक्टर ने कहा कि मैंने तो तुम्हें चलने से मना कर दिया था लेकिन यह देखकर मेरी आंखों में आंसू आ गए और डॉक्टर ने कहा कि विल्मा तुम कुछ भी कर सकती हो । विल्मा की मां का समर्पण और तुम्हारी इस लगन के कारण विल्मा रूडोल्फ पहली बार बॉस्केटबॉल खेली। इस तरह विल्मा को खेलते देखा तो स्कूल के टीचर ने भी विल्मा की बहुत मदद की और इस तरह से विल्मा अपने जोश और लगन से बहुत प्रेक्टिस में लग गई। फिर विल्मा रूडोल्फ ने पहली बार 13 साल की उम्र में दौड़ में भाग लिया लेकिन बलमा सबसे लास्ट में आई लेकिन उसके बाद भी बलमा ने अपना विश्वास नहीं खोया और अच्छी प्रैक्टिस जारी रखी।
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Wilma Rudolph 8 बार दौड़ प्रतियोगिताएं हारती रही। फिर नौवीं बार से उन्होंने जितना शुरू कर दिया। फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा । फिर विल्मा रूडोल्फ को अपनी लगन और जज्बे से 1960 के रियो ओलंपिक में अपने देश की तरफ से खेलने का मौका दिया । ओलंपिक में विल्मा रूडोल्फ ने 100 मीटर रेस से, 200 मीटर, 400 मीटर रेस में दौड़ में गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रच दिया। इस तरह विल्मा अमेरिका की पहली अश्वेत खिलाड़ी बनी। जिसने विकलांग होते हुए दौड़ में तीन रेस करते हुए गोल्ड मेडल जीता और गोल्ड मेडल मिलते ही वह अपने अमेरिका लौटते वक्त उनका सम्मान एक बड़ी पार्टी से किया गया। जिसमें पहली बार श्वेत अथवा अश्वेत अमेरिकन पार्टिसिपेट ने किया। इसको विल्मा अपने जीवन की एक बड़ी जीत मानती हैं और इस जीत के आगे अपनी मां का नाम आगे लेती हैं।