Gorakhpur: औरंगाबाद गांव की टेराकोटा हस्तशिल्प का नाम आते ही उसकी एक से बढ़कर एक सुंदर कलाकृतियों की तरफ सबका ध्यान न चाहते हुए भी चला जाता है। इसको बनाने वाले कुम्हारों को इसी कला की वजह से सात समंदर पार जाने का मौका भी मिल चुका है। अभी इनके हाथों का जादू हर किसी के सिर चढ़कर बोल रहा है। इनमें से कई ऐसे कुम्हार हैं जिनको नेशनल या फिर इंटरनेशनल लेवल पर अवार्ड भी मिल चुका है। गोरखपुर शहर से लगभग 15 किलोमीटर दूर औरंगाबाद अपनी टेराकोटा हस्तशिल्प के लिए भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी जाना जाता है। औरंगाबाद गांव में 12 कुम्हारों का नाम बड़े ही इज्जत के साथ लिया जाता है।
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सामान्य तौर पर मिट्टी के बर्तन को टेराकोटा कहा जा सकता है। अर्थात ये प्रकार की कला होती है। जिसमें मिट्टी का प्रयोग किया जाता है। टेराकोटा की मूर्तियां बनाने के लिए पक्की हुई मिट्टी के उपयोग को संदर्भित किया जाता है। कांसे की मूर्तियों की तुलना में टेराकोटा की मूर्तियां संख्या में कम है। तथा आकार व रूप भी भद्दी लगती हैं। आमतौर पर टेराकोटा का खिलौना, लघु गाड़ियां और पहिए, पशुओं की मूर्तियां आदि बनाने के लिए किया जाता है।
सन् 1966 में ज्वाहरलाल नेहरू ने भी टेराकोटा की मूर्तियों की तारीफ की थी। वहां की मूर्ति कारों ने बताया कि औरंगाबाद टेराकोटा का आकर्षण नेहरू को भी अपनी तरफ आकर्षित कर लिया था। जब वह 1966 में गोरखपुर आए। तो वह रिक्शे से औरंगाबाद गए। यहां पर टेराकोटा का काम शुरू करने वाले सुखराज से मिले। तथा उनकी कृतियों की काफी तारीफ भी की थी। इसके बाद से ही सुखराज ने वहां की स्थानीय लोगों को प्रशिक्षण देना भी शुरू कर दिया था। और अब तो औरंगाबाद के घर घर में टेराकोटा की मूर्तियां बनाई जाती हैं।
मूर्तिकार भागवत के कथनानुसार शिवानंद प्रजापति को 1981 में स्टेट अवार्ड मिला था। इसके बाद वो 8 फीट का राणा प्रताप का घोड़ा लेकर दिल्ली प्रदर्शनी में गए। उनको वहां अवार्ड तो नहीं मिला लेकिन सरकार ने उनका घोड़ा खरीद लिया। जो आज के समय में भी दिल्ली में पृथ्वी रोड पर स्थापित है। वहीं पर खूब लाल प्रजापति राधिका देवी भागवत ने कहां की इस वर्ष मिट्टी का दाम बहुत बढ़ गया है। इंधन के दाम भी आसमान छू रहे हैं। इसे और विकसित करने के लिए इसका एक बड़ा बाजार निर्मित होना चाहिेए।
हालांकि वहां के कुम्हारों का कहना है कि एक ट्रॉली मिट्टी में एक डीसीएम समान तैयार होते हैं। तथा उनकी कीमत एक से डेढ़ लाख रुपए होती है। एक ट्राली मिट्टी को बढ़ने के लिए 10 लोग काम करे। तो भी एक माह का समय लग ही जाता है। इसे पकाने में भी अधिकतम 3 दिन लगता है। तथा न्यूनतम जैसी दीया पकाना तो मात्र एक ही दिन काफी है। वहीं पर 68 साल के मूर्तिकार गबबू लाल प्रजापति ने बताया कि मैं जब 10 साल का था तभी से यह काम करता हूं। यह टेराकोटा हस्तशिल्प का काम हाथ का है। इस काम के लिए हमें सन् 1983 में नेशनल अवार्ड राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के द्वारा दिया गया था। इसी काम की वजह से उनके घर में उनके भतीजे को सरकारी नौकरी मिल चुकी है।