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Gulzar एक ऐसे शायर हैं जिनकी शायरी कानों में नहीं उतरती, बल्कि सीधा दिल में जाकर दस्तक देती है। गुलजार साहब की नज्मों की अगर बात करें तो उनकी नज्में अलग-अलग मूड में लिखी हुई नजर आती है। कहीं उनकी शायरी में दुख के धागे में पिरोई हुई लफ्ज़ों की चुभती हुई तीर,तो कहीं दिल पर दस्तक देती हुई रोमांटिक फिजा की बाहर भी नजर आती है। गुलजार कभी अपने भटके हुए बचपन की तलाश करते हुए नजर आते हैं।
कभी वह बूढ़ी आंखों में दूर कहीं जाती हुई उम्मीद को वापसी करते हुए भी दिखाई देते हैं। उनका ये शेर: “उदास रहता है मुहल्ले का बारिश आजकल, बरसात जानती है नाव बनाने वाला बचपन अब मोबाइल में गुम है”
साँस लेना भी कैसी आदत है
जिए जाना भी क्या रिवायत है
कितने बरसों से कितनी सदियों से
जिए जाते हैं जिए जाते हैं
आदतें भी अजीब होती है
अक्सर हमारी आदत दैनिक कार्यों से जुड़ी होती है, लेकिन गुलजार साहब ने आदत को एक नया मोड़ दिया है। अगर हम मैकेनिकल रूप से सिर्फ जिए जा रहे हैं, तो परिस्थितियों के गुलाम बनते जा रहे हैं, और यह आदत सदियों,जन्मों से चली आ रही है। आदतों में भटके हुए ना जाने कब मंजिल के रूबरू होंगे।
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आँखों में
पाँव बेहिस हैं चलते जाते हैं
इक सफ़र है जो बहता रहता है
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Gulzar साहब गफलत में जी रहे जिंदगी की बात करते हैं, जिसमें हम लड़खड़ाते भटकते,बेहोशी के आलम में सपने में चलते हुए से नजर आते हैं। ऐसा लगता है कि जीना हमारा खुद का वजूद नहीं बल्कि हमारी सदियों से चली आ रही आदतों का एक रिवायत सा बन गया है।
शायरी में मजा तब है जब उसके लफ्ज़ हमारे जेहन में लंबे समय तक गूंजते रहे और दिल की गहराइयों में भी डूबने की अनवरत कोशिश में लगे रहें।