Nitya Budhraja: काम धंधे से रिटायर होकर शांत पहाड़ों में प्रकृति के साथ रहना आखिरकार किसे नहीं पसंद? शहर की चकाचौंध से दूर होकर पहाड़ों में जाकर बसने के बारे में लोग सिर्फ ख्वाब ही देखते रह जाते हैं। मगर दिल्ली के इस लड़की ने अपनी इस ख्वाब को हकीकत में बदल दिया है।
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Nitya Budhraja, जो कि दिल्ली के एक इवेंट कंपनी में काम करती थी। लेकिन अब उत्तराखंड के पहाड़ों में बसे एक छोटे से कस्बे सातताल में जाकर बस गई हैं। यहां पर एक कैफे और काॅटेज भी चला रही हैं। हालांकि नित्या बुधराज ने अपने पिता की याद में कॉटेज का नाम “नवीन्स ग्लेन” रखा है, तो वहीं पर कैफे को अपनी मां का नाम दिया है “बाब्स कैफे”। सिर्फ यही नहीं नित्या और उनके परिवार ने इसी कस्बे में एक सरकारी स्कूल को संभालने का भी जिम्मा उठाया है। कॉटेज और कैफे चला कर ना सिर्फ वह सातताल के लोगों को रोजगार मुहैया करवाती हैं। बल्कि इस क्षेत्र में उन्होंने सात हजार से ज्यादा पेड़ भी लगाए है।
सातताल में बसने से पहले ही इवेंट मैनेजमेंट कंपनी में भी काम करती थी। Nitya Budhraja यह बताती हैं कि 4 घंटे के इवेंट के खत्म होने के बाद से इवेंट की सजावट से संबंधित इतना कूड़ा इकट्ठा हो जाता है कि इंसान देखकर चकरा जाए। यह कूड़ा सालों तक न गलता था और ना ही दोबारा किसी काम आ सकता था। पर्यावरण पर हो रही इससे ज्यादती को नित्य ज्यादा समय तक बर्दाश्त नहीं कर पाई और उन्होंने वह इवेंट कंपनी की शानदार नौकरी छोड़ दी।
आपको बता दें कि कुदरत से जुड़ने के लिए नित्या ने दिल्ली के एक ऐसे स्टार्टअप कंपनी में काम शुरू किया। जो लोगों को हिमालयी क्षेत्र में ट्रेकिंग के लिए ले जाती थी। काम के दौरान ही घूमते हुए खूबसूरत नजारे देख कर नित्य को पहाड़ों से प्यार हो गया। मगर पैसे की कमी के चलते यह ट्रैकिंग कंपनी भी जल्द ही बंद हो गई और इस दौरान नित्या को लिती यानी कि उत्तराखंड में एक सीजनल प्रॉपर्टी में देखरेख का काम मिल गया। इस प्रॉपर्टी के क्षेत्र में पानी की किल्लत थी।
बिजली एवं टेलीफोन कनेक्शन नहीं थे और यहां तक कि आने वाली सड़कें भी खस्ता हालात में ही थी। 6 महीने तक यहां काम करने के बाद से नित्या को यह तो समझ में आ गया कि वह शहर से दूर पहाड़ी कस्बों में बड़े आराम से रह सकती हैं।
नित्या की जिंदगी के अगले पड़ाव में ही उन्होंने कसार देवी में नंदा देवी हैंडलूम को-ऑपरेटिव में काम किया। जहां पर 200 ग्रामीण महिलाएं काम कर रही थी।
दरअसल जिंदगी ठीक से ही चल रही थी कि अचानक नित्या की जिंदगी में तूफान आ गया। अचानक से ही नित्या के पिता गुजर गए हैं और उन्हें रातोंरात काम छोड़कर सातताल आना पड़ा। कई वर्ष पहले उनके पिता ने सातताल में जो कुछ जमीन खरीदी थी। नित्या की मां और वह वहीं रहने लगे। सातताल की जुड़ी यादों की वजह से उनकी मां वापस दिल्ली जाना नहीं चाहती थी इसीलिए भी नित्या यहीं बस गई।
पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहती थी Nitya Budhraja गुजारा चलाने के लिए कुछ तो करना ही था लेकिन नित्या पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहती थी। नित्या के पिता इस क्षेत्र में कुछ कॉटेज बनाए थे। जिसमें उन्होंने सोलर पैनल से बिजली एवं रेन वाटर हार्वेस्टिंग से पानी की सुविधा कर दी थी। नित्या ने डेढ़ महीने तक इन्हीं कॉटेजों के सुधार एवं सजावट का काम किया। सातताल के इस क्षेत्र में पानी की बहुत कमी थी।
इस क्षेत्र में लगे देवदार के पेड़ जमीन का खूब सारा पानी चूस जाते थे। इसीलिए नित्य और उनकी मां ने 3 वर्ष के दौरान ही देवदार की जगह 7000 बलूत के पेड़ लगाएं। वह उस किस्म के पेड़ लगाना चाहते थे जो यहां की जलवायु एवं वातावरण के लिए अनुकूल हो।
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कॉटेज सैलानियों के लिए खोल दिए गए2 वर्ष पहले नित्या के कुछ दोस्त सातताल घूमने आए हुए थे और उन्हें रुकने की जगह चाहिए थी। उन्होंने नित्या के कॉटेज में ठहरने की गुंजाइश की। तभी से इन कॉटेज के दरवाजे सभी तरह के सैलानियों के लिए भी खोल दिए गए। आज इस कॉटेज में हरी मटर, लहसुन और सलाद पत्ता उगाया जाता है। कॉटेज के साथ बने कैफे में बनने वाले व्यंजनों में यहां की उगाई हुई कई चीजें भी काम में लाई जाती हैं।
हालांकि कॉटेज की देखरेख के लिए नित्या ने गांव के ही करीब 50 लोगों को रोजगार भी दिया है। सिर्फ इतना ही नहीं भविष्य में देवदार पेड़ से गिरने वाली सुई उससे भी नित्या इस क्षेत्र में रोजगार मुहैया करवाना चाहती हैं।
नित्या का यह मानना है कि बीते 2 सालों से इस क्षेत्र में रहते हुए एवं स्थानीय लोगों को योगदान देते हुए उन्हें पहली बार काम करते हुए सुकून महसूस हो रहा है। लालच को ताक पर रखकर अपने आसपास के लोगों को खुशी और रोजगार देने एवं इमानदारी से कमाए पैसे का कोई दिक्कत नहीं है।
नित्या आज सातताल में बनाएं इस सुंदर कॉटेज को अपनी मां और भाई के साथ मिलकर चलाती हैं। नित्या की हर मुस्कान उनके दिल के जज्बात को बयां करती है।