मृत्युदंड के खिलाफ आज विश्व दिवस है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का यह मानना है कि दुनिया के अलग-अलग देशों में लोगों को दी जा रही मौत की सजा बेहद ही चिंताजनक है। उनका मानना है कि मौत की सजा धार्मिक, अपराध विज्ञान, सामाजिक दृष्टिकोण और कानून से ठीक नहीं है। वर्ष 2003 में सजा-ए-मौत के खिलाफ विश्व दिवस मनाए जाने की शुरुआत हुई थी। इसका मुख्य उद्देश्य मौत की सजा के खिलाफ दुनिया भर में अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों, मजदूर संघों, स्थानीय सरकारों और बार एसोसिएशनों को एकजुट करना है।
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भारतीय दंड संहिता की धारा 302 यानी हत्या और 121 देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए मौत की सजा का प्रावधान है। एक अनुमान के अनुसार विश्व की लगभग 97 देशों ने सभी अपराधों के लिए मौत की सजा को खत्म कर दिया है। हमारे देश में भी समय-समय पर मौत की सजा को खत्म करने की मांग उठती रही है। हम 10 अक्टूबर को “मौत की सजा”के खिलाफ विश्व दिवस मनाते हैं। संयुक्त राष्ट्र के लिए जिनेवा में वाटिकन के स्थाई प्रतिनिधि ने अपनी गहरी मान्यता को बनाए रखने के लिए कलीसिया की प्रतिबद्धता की पुष्टि की कि जीवन बेहद पवित्र है। तथा मृत्युदंड देशों और मानवता के लिए विफलता का प्रतिनिधित्व करते है।
मौत की सजा सबसे चौंकाने वाली ही बात है। इस दुनिया में जो अभी भी मौजूद हैं। तथा कई जगहों पर इसे अनुमति दी जाती है। दरअसल महाधर्माध्यक्ष जुरकोविच ने महान रूसी लेखक टॉलस्टॉय के हवाले से बताया कि उन्होंने एक दिन फांसी की सजा पाते हुए व्यक्ति को देखा और बताया कि मैं आज सबसे बड़े पाप का गवाह था। जो इंसान न्याय की नाम पर अपराध भी कर सकता है। उन्होंने एक बार फिर से दोहराया कि सभी अंतरराष्ट्रीय संगठनों को मृत्युदंड की भावन के बारे में स्पष्ट रूप से बोलने का कर्तव्य है। मौत की सजा तो बिल्कुल भयानक और बेवजह ही हैं।