छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की समस्या: नक्सलवाद की शुरुआत किसानों की लड़ाई को लेकर हुई थी। जमीदारों द्वारा की गई किसानों पर हैवानियत और अन्याय से परेशान होकर एक जमीदार घर के लड़के ने जिसका नाम चारु मजूमदार था इस आंदोलन की शुरुआत की। यह विचारधारा भारत देश के स्वतंत्र होने से पहले ही शुरू हो चुकी थी। लेकिन गुलाम भारत में यह लड़ाई ब्रिटिश सरकार और किसानों के बीच थी तो इसे देश प्रेम कहा जाता था लेकिन जब भारत देश आजाद हो गया तो केंद्र में कांग्रेसी सरकार बनी और फिर भी जमींदार और सरकार के खिलाफ यह आंदोलन चलता रहा तो इन नक्सलवादियों को देशद्रोही कहा जाने लगा।
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आइए समझते हैं की छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की समस्या कहा से शुरू हुई
नक्सलवाद की शुरुआत पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के गांव नक्सलवाड़ी से हुई है। इस विचारधारा के लोगों को नक्सली कहते हैं इन लोगों के लिए माओवादी शब्द का प्रयोग किया जाता है क्योंकि चीनी नेता माओ त्से तुंग की विचारधारा से यह लोग प्रभावित हैं। नक्सली और माओवादी में फर्क है कि नक्सली पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में विकास के अभाव और गरीबी का नतीजा है और माओवादी चीन के माओ त्से तुंग की राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित हैं लेकिन दोनों विचारधाराओं में समानता है कि दोनों ही भुखमरी, गरीबी और बेरोजगारी से आजादी की बात करते रहे हैं। 1967 से नक्सलवाद की समस्या ने तूल पकड़ा लेकिन आज तक हमारी सरकार ऐसे खत्म करने के लिए कामयाब नहीं हुई है।
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छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की समस्या को बढ़ाने में सरकारों की भूमिका नक्सलवाद की पृष्ठभूमि सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई है लेकिन बदलते समय के साथ यह उग्र होता चला गया। इस आंदोलन के उग्र आंदोलनकारियों में चारू मजूमदार ,कानू सान्याल और जंगल संथाल का नाम आता है। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री विधान चंद्र रॉय को एक पार्टी में काले झंडे दिखाए तो 1948 में चारू मजूमदार को जेल में डाल दिया। जहां चारु की कानू सान्याल से मुलाकात हुई। दोनों ने एक दूसरे की विचारधारा को समझा और आंदोलन को आगे बढ़ाने की योजना बनाई। कानू सानयाल बड़ी उग्र प्रवृत्ति का था। नक्सलवादियों की विचारधारा है कि कोई भी काम हथियार की दम पर किया जा सकता है।
अन्याय और गैर बराबरी से पनपा आंदोलन हिंसा पर आधारित है और नक्सलियों द्वारा जमींदारों की सत्ताधारी और सुरक्षा बलों तैनात जवानों की हत्या कर देना तो एक आम बात हो गई है। कृषि में असंतोष से नक्सलवादी सोच को बढ़ावा मिलता है। अन्याय और गैर बराबरी से पनपा यह आंदोलन देश व समाज के लिए नासूर बन गया है। छत्तीसगढ़ के बस्तर और सुकमा उड़ीसा के मलकानगिरी में निचले स्तर की जीवन शैली और स्वास्थ्य सेवा ना मिल पाने के कारण भुखमरी और कुपोषण है और देश का एक तबका सुख सुविधाओं से लैस और दूसरी तरफ भयंकर दिल कपा देने वाली गरीबी है।
सरकारें संविधान की पांचवी अनुसूची को तवज्जो देने से कतराते रही हैं गौरतलब है कि इस अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण से जुड़े मामले सामने आते रहे हैं चिंतासील बात है कि इतने सालों बाद भीअनुसूचित जनजातियों के लिए सरकारों ने कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं। और हाल ही में चल रहे किसान आंदोलन से लोगों में निराशा और हताशा की स्थिति पनपते हैं जिससे नक्सल वाद को बढ़ावा मिलता है। और हमारी युवा पीढ़ी अपने मार्ग से विचलित होती है।
वैसे तो सरकार है नक्सलियों से निपटने के लिए खास कदम नहीं उठाते हैं लेकिन सरकारों ने कुछ प्रयास किए हैं जिनसे कुछ हद तक नक्सली हिंसा में कमी आई है। 2008 में 223 जिले प्रभावित और 2014 में 161 और 2017 में 126 जिले नक्सल प्रभावित रह गए हैं। गृह मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट में पता चला है कि 44 जिलों को नक्सल मुक्त घोषित कर दिया गया है लेकिन यह भी बात सामने आई है कि 8 नए जिलों में नक्सली गतिविधियां प्रारंभ हो गई हैं। अब नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 90 हो गई है जो 11 राज्यों में फैले हुए हैं। छत्तीसगढ़ ,बिहार, उड़ीसा ,आंध्रप्रदेश सबसे अधिक नक्सल प्रभावित क्षेत्र हैं।