Supreme Court: सोमवार को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को यह बताया कि उसने भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए (देशद्रोह) एक बार फिर से परीक्षण किया तथा पुनर्विचार करने का फैसला किया है। Supreme Court ने नया हलफनामा दायर कर केंद्र ने अपना पक्ष रखा। इसी धारा के अंतर्गत मैक्सिमम सजा के तौर पर आजीवन कारवास का प्रावधान है। पत्रकारों, गैर सरकारी संगठनों, राजनीतिक नेताओं तथा एक्टिविस्ट ने सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर कर इसी कानून की वैधता को चुनौती दी है।
केंद्र ने हलफनामे में यह कहा है कि इस कानून के बारे में अलग-अलग न्याय विदो, सामान्य नागरिकों, बुद्धिजीवियों तथा शिक्षाविदों ने विभिन्न विचार व्यक्त किए तथा सरकार इससे अवगत है।
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हलफनामे में कहा गया है कि पीएम की यह धारणा है कि ऐसे समय में जब हमारा देश आजादी का 75वां साल मना रहा है। हमें औपनिवेशक बोझ को दूर करने की दिशा में भी काम करना चाहिए। भावना के अनुरूप वर्ष 2014 से 2015 से अभी तक 15 100 से ज्यादा पुराने कानूनों को खत्म कर दिया गया है। 25 हजार से अधिक अनुपालन (कंप्लायंस) बोझ को भी समाप्त कर दिया है। जो कि लोगों के लिए अनावश्यक बाधा उत्पन्न कर रहे थे।
केंद्र ने यह भी कहा है कि लोगों को बिना सोचे समझे परेशान करने वाले कई कानूनी प्रावधानों को अपराध की श्रेणी से भी बाहर कर दिया गया है। यही सतत प्रक्रिया है। यह ऐसे कानून तथा अनुपालन थे जो औपनिवेशिक मानसिकता को भी जन्म देते थे। लेकिन आज के भारत में इनका कोई भी स्थान नहीं था।
केंद्र सरकार ने यह कहा है कि न्यायालय को एक बार फिर से इसी धारा की वैधता का परीक्षण करने में अपना वक्त खर्च नहीं करना चाहिए। न्यायालय को उसी उपयुक्त मंच के समक्ष सरकार द्वारा की जाने वाली कवायद की प्रतीक्षा करनी चाहिए। जहां इसी प्रकार की विचार को संविधानिक रूप से अनुमति दी गई है।
दरअसल शीर्ष अदालत ने देशद्रोह कानून के दुरुपयोग पर भी भारी चिंता व्यक्त की थी। शीर्ष अदालत ने केंद्र से यह पूछा था कि इस औपनिवेशिक कानून को क्यों नहीं हटाया जाना चाहिए। जिसका उपयोग कभी ब्रिटिश सरकार स्वतंत्रता आंदोलनों को दबाने तथा महात्मा गांधी एवं बाल गंगाधर तिलक जैसे नेताओं पर अत्याचार करने के लिए करती थी।
शीर्ष अदालत ने यह कहा है कि देशद्रोह कानून का अंधाधुन उपयोग बढ़ई के हाथ में आरी की तरह ही है। जो पेड़ के जगह पर पूरे जंगल को भी काट देती है। Supreme Court ने यह कहा था कि यह दुर्भाग्य की बात है कि इस कानून को 75 वर्ष बाद जारी रखा गया है। हम नहीं जानते हैं कि वो इस कानून को क्यों नहीं देख रही हैं?? इसी कानून का जारी रहना संस्थानों के कामकाज तथा व्यक्तियों की स्वतंत्रता के लिए भी एक गंभीर खतरा है।
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केंद्र सरकार ने शनिवार को सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया था कि इस कानून के बारे में वर्ष 1962 में 5 जजों की संविधान पीठ का दिया गया फैसला सही था। उसमें बदलाव के लिए भी पांच या फिर इससे अधिक जजों की पीठ बनाई जानी चाहिए। चूंकि सोमवार को केंद्र सरकार अपने इस रुप से पीछे हट गए।