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भारत में किसानों के साथ दुर्दशा क्यों, किसान और सरकार का गतिरोध कैसे सुलझे? हमेशा क्यों होते रहते हैं किसान आंदोलन?

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भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां के किसान जिन्दा रहे या मरे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर फर्क पड़ता भी है तो केवल किसान के परिवार वालों को। आए दिनों किसानों की आत्महत्याएं हो रही है और निर्दयी समाज उसका उपहास कर रहा है। किसान आंदोलन किसानों की हड़ताल और किसानों की मौत का मजाक उड़ाया जा रहा है। अर्थात किसानों की आत्महत्याएं, उसके प्रति समाज को ना जिम्मेदार बनाते हैं और ना ही मजबूर करती है सोचने के लिए। और तो और इन खबरों को पढ़कर, सुनकर, देखकर जो किसान नहीं है। वो व्यंग और कुटिलता से हंस रहे है। राजनेताओं के लिए चुनकर आने के लिए एजेंडा है।सरकार के लिए हमदर्दी दिखाने की जगह है और विरोधी पार्टियों के लिए अगली बार सत्ता में आने का मौका है। बस इससे ज्यादा और कुछ नहीं।

किसान मारते हुए बिल्ली मुर्गियों की तरह…

किसान मारते हुए बिल्ली और मुर्गी की तरह…। यही प्रतिक्रियाएं बेदर्द दुनिया और देशवासियों की है। ऐसे वाक्यों और घटनाओं का हम भी कभी सामना कर चुके होते हैं। अपने आसपास जिसका कभी किसानों से वास्ता पड़ा ही नहीं, वे बड़ी बेदर्दी और गैर जिम्मेदारी से मजाक उड़ाते हैं हम सिर्फ देखते हैं, दर्द होता है। इसका मानवीयता और एहसानफरामोशी के बदले जोरदार तमाचा लगाने का मन भी करता है। “आए दिन तो आत्महत्या की खबर सुनते ही रहते हैं। जिधर देखो, उधर कोई पेड़ की डाल पर लटका पड़ा है, कोई कुएं में गिर पड़ा है तो कोई कीटनाशक खाकर मुंह से झाग फेंक रहा है। हमारे देश में किसान मर रहे है किसान आत्महत्या कर रहा है। हम वह नैतिक अधिकार खो चुके हैं। जिस देश में किसान खेती से पराजित होकर कर्ज तले मौत को गले लगा रहा है, तो वह दर्दनाक मौत है। मौत पर मौतें, क्या बताती हैं? यही कि आत्महत्यारो का देश, या फिर हत्यारों का देश…।

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कैसे सुलझे किसान और सरकार का गतिरोध?

कोरोना महामारी और लॉक डाउन के बीच कृषि सुधार की कोशिशों ने दो बड़े काम किए। पहला तो मंडी सिस्टम और खेती की मजबूती व्यवस्था की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित किया। दूसरा राजनीति हाशिए पर खड़े किसानों को कृषि कानून का विरोध दिल्ली बॉर्डर तक ले आया। कृषि कानूनों की यह दोनों असर आने वाले वर्ष और दशक की खेती से जुड़ी नीति और राजनीति पर बड़ा असर डाल सकते है।किसान का हठ है कि सरकार तीनों कृषि कानूनों को वापस ले। आंदोलन तो किसानों का है लेकिन विरोधी दल की चांदी हो गई। उनकी भाग्य से छत्ता टूट पड़ा। पिछले सात साल में मोदी सरकार ने कई बड़ी भूले की लेकिन विपक्ष उनका कुछ नहीं कर पाया। ‌ लेकिन किसानों के बहाने विपक्ष के हाथ में अब ऐसा भोपू आ गया है। जिसकी दहाड़े देश विदेश में भी सुनी जा सकती हैं। इस विसंगति के लिए मोदी सरकार की जिम्मेदारी कम नहीं है। उन्होंने ये तीनों कृषि कानून आनन-फानन में बनाए और कोरोना दौर में संसद से झटपट पास करा लिया। न तो उस पर संसद में जमकर बहस हुई और ना ही किसानों से विचार विमर्श किया गया। जैसे नोटबंदी, तीन तलाक, जीएसटी और नागरिकता संशोधन कानून एक झटके में थोप दिए गए, वहीं कृषि कानून के साथ किया गया। सरकार ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसके विरुद्ध इतना बड़ा आंदोलन खड़ा होगा। भारत की आम जनता बड़े असमंजस में है। अपने किसानों के लिए उसके दिल में प्रेम और सम्मान तो बहुत है। लेकिन उसकी समझ में यह नहीं आ रहा है, कि इन कानूनों से किसानों को क्या नुकसान होने वाला है। सरकार ने वादा किया है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य कायम रखेगी और मंडी व्यवस्था में छेड़छाड़ नहीं की जाएगी‌। यदि किसान बड़े कंपनियों के साथ मिलकर खेती करना चाहे और अपना माल मंडियों के बाहर भेजना चाहेंगे तो उन्हें यह सुविधा मिलेगी। यदि कंपनियां और किसान के बीच कोई विवाद हुआ है तो वह सरकारी अधिकारी नहीं, आदालतो के शरण में जा सकेंगे। सरकार ने उपजो के भंडार की सीमा भी खत्म कर दी है। इससे भारतीय खेती के आधुनिकरण की गति बहुत तेज हो जाएगी। किसानों को बेहतर बीज, सिंचाई, कटाई, भंडार और बिक्री के अवसर मिलेंगे। भारतीय किसान एक एकड़ में जितना अनाज पैदा करता है। वह चीन और कोरिया जैसे देशों के मुकाबले एक चौथाई है। भारत में खेती की जमीन दुनिया में ज्यादातर देशों के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। देश में किसानों की संख्या का अनुपात भी अन्य देशों के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। ‌ ‌ यदि किसान प्रतिहिंसा पर उतर आए तो आम जनता की सहानुभूति भी किसानों के साथ हो जाएगी। ऐसी स्थिति में सरकार अब क्या करें? वह चाहे तो राज्यों को छूट दे दे। जिन राज्यों को यह कानून लागू करना है वे करें, जिन्हें नहीं करना भी ना करें। या फिर सरकार आंदोलनकारी समर्थन किसानों के मुकाबले देश के सभी किसानों के समांतर धरना प्रदर्शन आयोजित करें या फिर वह इन कृषि कानूनों को वापस ले ले।
आंदोलन जरूरत से ज्यादा लंबा खींच रहा है, और किसी के लिए भी यह ठीक नहीं है क्या किसानों को मनाने की कोई नई कोशिश हो सकती हैं? क्या ऐसे प्रावधान पुख्ता तौर पर किए जा सकते हैं जिनसे निजी क्षेत्र में भी किसानों को शोषण का शिकार ना होना पड़े? कृपा करके सरकार किसानों का श्रेय लाभ लेने की बजाय उन्हें अपने हाल पर ही छोड़ दे तो क्या बेहतर नहीं होगा?

मानसिकता तो बदलनी ही पड़ेगी.

मानसिकता बदलनी पड़ेगी, सरकार पॉलिसी मेंकरो को और किसानों को भी। राहत पैकेज की मांग किसान भी न करें और सरकार भी उसे देकर हाथ झटक न दे। निश्चित ही जरूरी है कि दूरगामी ठोस सिंचाई व्यवस्था को अंजाम तक ले कर जाने की।कोई ठोस इंतजाम अगर नहीं होंगा, तो मौतों का सिलसिला यूं ही जारी रहेगा और किसानों का सवाल भी। खेती में किसान का किसानी में मन क्यों नहीं लग रहा है? का भी उत्तर नहीं मिलेगा। किसान नेताओं का निर्माण, उनकी नीतियां किसानुकूल, विज्ञान वादी और आधुनिकता का भी होना जरूरी है। खेती को रुढ़ी और परंपरागत ढ़र्रे से बाहर निकालकर सिंचाई के साथ प्रगति के रास्तों पर लेकर जाना मौतों, हत्याओ और आत्महत्याओं को रोक सकता है। फिलहाल किसान के दरवाजे पर गमी है, दुख है। यह गैर-जिम्मेदाराना हरकत वाली आग धीरे-धीरे सारे देश को तबाह कर देगी। जिस-जिस दिन भारत का किसान मारेगा, उस उस दिन भारत के कृषि और कृषि प्रधानता होने की भी मौत होगी।




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