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पोक्सो एक्ट 2012 को बच्चों के प्रति यौन उत्पीड़न और यौन शोषण और पोर्नोग्राफी जैसे जघन्य अपराधों को रोकने के लिए बनाया गया था। यौन शोषण से संबंधित जितना अधिक गंभीर अपराध होगा उतनी ही अधिक सजा का इस एक्ट में प्रावधान किया गया है। 2019 में और अधिक बर्बर यौन शोषण के मामले सामने आए जिससे इस एक्ट में और संशोधन किया गया। इस एक्ट का उद्देश्य बच्चे का स्वास्थ्य शारीरिक, भावनात्मक, बौद्धिक और सामाजिक विकास सुनिश्चित करना है।
धारा (7) – इस धारा में सेक्सुअल एसॉल्ट के बारे में बताया गया है और इसके बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है कि किस कृत्य को सेक्सुअल एसॉल्ट के दायरे में मानेंगे।
धारा (8)- पोक्सो कानून में धारा 8 में दंड के प्रावधान दिए गए हैं। इसमें दिया गया है कि सेक्सुअल एसॉल्ट में न्यूनतम 3 वर्ष का कारावास और इस कारावास को 5 वर्ष तक भी बढ़ाया जा सकता है और जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
धारा (9) – यदि किसी बच्चे के साथ गंभीर यौन हमला होता है तो धारा 9 में बताया गया है कि इसकी सजा न्यूनतम 5 वर्ष और इस सजा को 7 वर्ष तक भी बढ़ाया जा सकता है। और साथ में जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
POCSO कानून एक बार फिर चर्चा में आया है क्योंकि हाईकोर्ट ने एक बेतुकी टिप्पणी की है। जिसे किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट के इस फैसले पर आपत्ति जताई है।
भारत के महान्यायवादी ने हाईकोर्ट के दो फैसलों पर आपत्ति जताई है और इन दो केसों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से अपील की है।
पहला मामला- पहले मामले में एक आरोपी को यौन शोषण के मामले में विशेष अदालत ने दोषी करार दिया था। फिर आरोपी ने मुंबई हाई कोर्ट में अपना मामला दर्ज कराया। हाईकोर्ट ने कहा कि यहां उत्पीड़न के मामले में बड़ी सजा के लिए शख्त सबूत की आवश्यकता है जो कि पीड़ित के पास नहीं है।
दूसरा मामला- दूसरा मामला महाराष्ट्र राज्य बनाम लिबनस का है । जहां हाईकोर्ट ने कह दिया कि अपीलकर्ता के सारे कृत्य धारा 7 के कृत्यों के दायरे से बाहर हैं। आरोपी के कृत्य धारा 7 के कृत्यों के दायरे में नहीं आते हैं यह कहते हुए हाईकोर्ट ने आरोपी को बरी कर दिया। हाई कोर्ट ने टिप्पणी की कि पीड़ित के शरीर से डायरेक्ट संबंध नहीं बनाया गया है।यानि कि Skin to Skin contact नहीं हुआ है तो इसे सेक्सुअल एसॉल्ट नहीं माना जाएगा।
इन दो मामलों के खिलाफ भारत के महान्यायवादी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। तो सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस फैसले की घोर निंदा की। न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित, न्यायमूर्ति एस रविंद्र भट और न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी ने हाईकोर्ट के इस फैसले को सीमित और बेतुकी व्याख्या कहा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा की धारा 7 के तहत स्पर्श या शारीरिक संपर्क की स्किन टू स्किन कॉन्टैक्ट जैसी सीमित व्याख्या बेतुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पॉक्सो कानून का उद्देश्य बच्चों का संरक्षण करना है ना कि दोषियों का संरक्षण करना। दोषी का किसी बच्चे के प्रति गलत सेक्सुअल भावना अपराध की श्रेणी में आता है। इसके लिए त्वचा से त्वचा का संपर्क आवश्यक नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “शारीरिक संपर्क” शब्द दोषी के गलत भावनाओं का बच्ची पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव को दर्शाता है लेकिन इसके लिए “शारीरिक स्पर्श” शब्द प्रयोग करना अनुचित है क्योंकि शारीरिक स्पर्श शब्द संकीर्ण और सीमित है।
Skin to skin contact जैसी सीमित और बेतुकी व्याख्या वाले फैसले पर सोशल मीडिया पर लोगों ने प्रतिक्रिया दिखाई और कहा कि यदि किसी को दस्ताने पहन कर छुआ जाए तो क्या वह सेक्सुअल एसॉल्ट नहीं कहा जाएगा । यदि कोई किसी लड़की पर कमेंट पास करें उससे अश्लील बातें करें या उससे कपड़ों के ऊपर से छुए तो क्या उसे सेक्सुअल एसॉल्ट नहीं कहेंगे। यदि किसी बच्ची को बस में सफर करते हुए कोई ऊपर से छुए, छेड़े तो क्या उसे सेक्सुअल एसॉल्ट नहीं कहेंगे। इस प्रकार सोशल मीडिया पर भी हाईकोर्ट के इस फैसले की धज्जियां उड़ाई गई।
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