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राजद्रोह कानून क्या है ? क्या है राजद्रोह कानून का इतिहास ? राजद्रोह कानून में कितनी गिरफ्तारी हो चुकी हैं ?पत्रकारों के सवालों को दबाने के लिए राजद्रोह कानून का गलत उपयोग हो रहा है ?

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देश में राजद्रोह को  भारतीय दंड संहिता ( IPC ) की धारा 124 ए में परिभाषित किया गया है। आईपीसी की धारा 124 ए के अनुसार बोले या  लिखें गए शब्दों या संकेतों द्वारा या दृश्य प्रस्तुति द्वारा जो कोई भी भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अबमान पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा। असंतोष उत्पन्न या करने का प्रयत्न करेगा उसे आजीवन कारावास या 3 वर्ष तक की कैद और जुर्माना अथवा दोनों से दंडित किया जाएगा। धारा 124 ए के अनुसार , असंतोष (Disaffection) का   अर्थ घृणा और घृणा संबंधी सभी प्रकार की भावनाओं से है। आईपीसी की किस धारा में स्पष्ट किया गया है कि सरकार या प्रशासन के विरुद्ध किसी भी प्रकार की आलोचना अपराध नहीं है।

भारत में राजद्रोह एक संघीय अपराध है अर्थात इसके तहत गिरफ्तारी के लिए वारंट की आवश्यकता नहीं होती है ,साथ ही इसके तहत दोनों पक्षों के मध्य आपसी सुलह का भी कोई प्रावधान नहीं है। धारा 124 ए के अनुसार, यह गैर जमानती अपराध है। इस धारा के तहत सजा तब तक नहीं दी जा सकती जब तक कि अपराध सिद्ध नहीं हो जाता उल्लेखनीय है कि मुकदमे की पूरी प्रक्रिया के दौरान जिस व्यक्ति पर भी आरोप लगे हैं उससे उसका पासपोर्ट जप्त कर लिया जाता है, इसके अलावा वह इस दौरान कोई भी सरकारी नौकरी प्राप्त नहीं कर सकता व्यक्ति को समय पर कोर्ट में भी हाजिर होना पड़ता है।

राजद्रोह कानून का इतिहास :–

इंग्लैंड में राजद्रोह कानून को 17वीं शताब्दी में अधिनियमित किया गया, क्योंकि वहां के तत्कालीन कानूनविदो का मानना था कि सरकार और साम्राज्य के विरूद्ध कोई भी नकारात्मक विचार है या टिप्पणी सत्ता के लिए हानिकारक हो सकते हैं भारत में sedition कानून की उत्पत्ति 19वीं शताब्दी के बहावी आंदोलन से जुड़ी है यह एक इस्लामी पुनरुत्थान वादी आंदोलन था जिसका नेतृत्व सैयद अहमद बरेलवी ने किया।

मूल रूप से यह कानून वर्ष 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार और राजनीतिज्ञ  थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था लेकिन जब वर्ष 1860 में IPC लागू किया गया तो इस कानून को उसमें शामिल नहीं किया गया जब  1870 में सर जेम्स स्टीफन को अपराध से निपटने के लिए एक विशेष खंड की आवश्यकता पड़ी दो तो उन्होंने आईपीसी संशोधन अधिनियम 18 70 के तहत धारा 124 ए को आईपीसी में शामिल किया,। सरकार ने इस कानून का उपयोग कई स्वतंत्रता सेनानियों को दोषी ठहराने और उन्हें सजा देने के लिए किया।

सर्वप्रथम इस कानून का उपयोग एक अखबार के संपादक जोगेंद्र चंद्र बोस के विरुद्ध किया गया क्योंकि उन पर आरोप था कि उन्होंने विक्रय सरकार के विरुद्ध लेख लिखा था उल्लेखनीय है कि इस कानून के तहत महात्मा गांधी पर भी यंग इंडिया में उनके लहू के कारण राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया था। वर्ष  1922में जब महात्मा गांधी पर राजद्रोह का मुकदमा दायर किया गया तब उन्होंने कहा था कि –  “मैं जानता हूं इस कानून के तहत अब तक कई महान लोगों पर मुकदमा चलाया गया है और इसलिए मैं इसे स्वयं के लिए सम्मान के रूप में देखता हूं “।

राजद्रोह कानून में गिरफ्तारी  , चार्ज शीट और दोषी :-

National crime record ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार भारत में साल 2015 में 30 2016 35 2017 में 51 2018 में 70 और 2019 में 13 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए हैं।

*  2014 में 58 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया लेकिन सिर्फ 16 के खिलाफ चार्जशीट दायर हुई और उनमें से भी केवल एक को ही अदालत ने दोषी माना।

*  वहीं 2015 में इस कानून के तहत 73 गिरफ्तारियां हुई और तेरा के खिलाफ चार्जशीट दायर हुई लेकिन इनमें से एक को भी अदालत में दोषी नहीं साबित किया जा सका।

* 2016 में 48 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया और उनमें से 26 के खिलाफ चार्जशीट दायर हुई और केवल एक आरोपी को ही अदालत ने दोषी माना।

* इसी तरह 2017 में जिन 228 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया उनमें से 160 के खिलाफ चार्जशीट दायर हुई और उनमें से भी  मात्र 4 लोगों को ही अदालत ने दोषी माना।

*  2018 में जिन 56 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया उनमें से 46 के खिलाफ चार्जशीट दायर हुई और उनमें से भी केवल दो लोगों को ही अदालत ने दोषी माना।

*  2019 में देश में जो 93 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए और  96 लोगों को गिरफ्तार किया गया। इन 96 लोगों में से 76 आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट दायर की गई और 29 को बरी कर दिया गया । इन सभी आरोपियों में से केवल दो को अदालत ने दोषी ठहराया।

पत्रकारों को दबाता राजद्रोह कानून :-

इसी साल 2021 जनवरी में नोएडा पुलिस ने कांग्रेस सांसद शशि थरूर सहित छह पत्रकारों पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया था जिसमें आरोप लगाया था कि इन लोगों ने सोशल मीडिया पोस्ट्स और डिजिटल प्रसारण राष्ट्रीय राजधानी में किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान  हिंसा के लिए जिम्मेदार थे।

अक्टूबर 2020 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन और तीन अन्य लोगों पर राजद्रोह सहित विभिन्न आरोपों में मामला दर्ज किया, कप्पन एक कथित सामूहिक बलात्कार मामले की रिपोर्ट करने के लिए हाथरस जा रहे थे।

उसी महीने मणिपुर के पत्रकार किशोर चंद्र वांगखेम के खिलाफ एक सोशल मीडिया पोस्ट की वजह से राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया बांग के मुख्य 2018 में भी राजद्रोह के आरोप में किया गया था ।बाद में उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत r.s.s. मुख्यमंत्री एन वीरेन सिंह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ टिप्पणी करने के लिए गिरफ्तार किया गया था । मणिपुर के उच्च न्यायालय ने अप्रैल 2019 में उनके खिलाफ आरोपों को खारिज करते हुए उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया था।

हाल ही में बिहार निचली अदालत ने चर्चित इतिहासकार रामचंद्र गुहा सहित 49 प्रतिष्ठित व्यक्तियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 124 ए के तहत राजद्रोह का मामला दर्ज करने का निर्देश दिया था। उल्लेखनीय है कि उपरोक्त सभी व्यक्तियों ने भारत के प्रधानमंत्री की भीड़ संबंधी हिंसा अथवा मोब लिंचिंग पर चिंता जाहिर करते हुए पत्र लिखा था जिसमें आरोप लगाया गया था कि इस पत्र से अंतरराष्ट्रीय पर देश की छवि खराब हो रही है।

यदि पत्रकार जनता की आवाज ना उठाएं और सरकार से सवाल ना करें, आलोचना ना करें फिर देश की सरकार को किस प्रकार के पत्रकार की आवश्यकता है।

राजद्रोह कानून  से जुड़े चर्चित मामले :-

बाल गंगाधर तिलक 1897– भारत के स्वतंत्रता के कट्टर समर्थक बाल गंगाधर तिलक पर दो बार राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। सर्वप्रथम 1897 में बाल गंगाधर के एक भाषण ने कथित तौर पर जनता को हिंसक व्यवहार के लिए उकसाने और जिसके कारण ब्रिटिश अधिकारियों की मौत हो गई और दूसरी बार राजद्रोह का आरोप तब लगा जब 1909 में जब उन्होंने अपने अखबार केसरी में अंग्रेजी सरकार विरोधी लेख  लिखा

केदारनाथ सिंह 1962 – यह मामला स्वतंत्र भारत की किसी अदालत में राजद्रोह का पहला मुकदमा था । इस मामले में पहली बार देश में राजद्रोही के कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी गई। और मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने देश और देश की सरकार के मध्य के अंतर को भी स्पष्ट किया। बिहार में फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदारनाथ सिंह पर तत्कालीन सत्ताधारी सरकार की निंदा करने और क्रांति का आह्वान करने हेतु भाषण देने का आरोप लगाया गया था। इस मामले में अदालत ने स्पष्ट कहा था कि ” किसी भी परिस्थिति में सरकार की आलोचना करना राजद्रोही के तहत नहीं गिना जाएगा।”

असीम त्रिवेदी 2012 – विवादास्पद राजनीतिक कार्टूनिस्ट और कार्यकर्ता असीम त्रिवेदी जो अपने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान ( कार्टूंस अगेंस्ट करप्शन) के लिए सबसे ज्यादा जाने जाते हैं, को वर्ष 2010 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था उनके कई सहयोगियों का मानना था कि असीम त्रिवेदी पर राजद्रोह का आरोप भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के कारण ही लगाया गया है।

विनोद दुआ   2020 -21 – विनोद दुआ पर शिमला के कुमार सेन पुलिस थाने में बीजेपी नेता ने शिकायत दर्ज कराई थी और आरोप लगाया था कि पीएम ने आतंकी हमले और मौत का इस्तेमाल वोट के लिए कर रहे हैं। 6 मई 2020 को हुई f.i.r. में यह भी आरोप लगाया गया कि विनोद दुआ का जो बयान है वह गलत है और पीएम के खिलाफ गलत न्यूज़ फैला रहे हैं विनोद दुआ का बयान पब्लिक ऑर्डर खराब करने और हिंसा को बढ़ावा देने की नियत बाला है।

फिलहाल कोर्ट ने विनोद दुआ को बड़ी राहत दी है सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ केस का हवाला देते हुए कहा कि सरकार की आलोचना राजद्रोह के दायरे में नहीं आता है।

राजद्रोह कानून के निरस्त होने के पक्ष में तर्क :-

राजद्रोह कानून के विरोधियों का मानना है कि यह गांधी दर्शन के मूल सिद्धांत , असंतोष का अधिकार की अवहेलना करता है पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में स्पष्ट किया कि यह कानून से जितना जल्दी हो सके छुटकारा पा लें वह बेहतर होगा क्योंकि धारा 124 ए का संबंधित दंडात्मक प्रावधान अत्यधिक आपत्तिजनक और अप्रिय है। धारा 124 ए औपनिवेशिक विरासत का एक अवशेष है। एवं एक लोकतांत्रिक देश के लिए अच्छा नहीं है यह भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाता है।

एक जीवंत लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि उसमें सरकार की आलोचना और उसके प्रति असंतोष को भी स्थान दिया जाए, परंतु कई बार इस कानून का गलत प्रयोग ऐसा संभव नहीं होने देता है। आज सरकारों के बीच यह कानून इतना लोकप्रिय हो गया कि पत्रकार सरकार की नाकामी पर सवाल करें तो वह भी राजद्रोह के मामले में फंसा दिया जाता है।

वर्ष 2014 में झारखंड में विस्थापन का विरोध कर रहे आदिवासियों पर भी देशद्रोह का कानून चलाया गया था। यह कानून निरस्त हो जाना चाहिए क्योंकि यह है अभिव्यक्ति की आजादी और आंदोलन करने की आजादी पर अंकुश लगाती है।

राजद्रोह कानून के निरस्त ना होने के पक्ष में तर्क :-

राजद्रोह कानून लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से उखाड़ फेंकने के प्रयासों से बचाता है विदित है कि कानून द्वारा स्थापित सरकार का स्थाई अस्तित्व  राज्य स्थिरता की अनिवार्य शर्त है। राजद्रोह कानून जिन्हें फायदे का लगता है उनका कहना है कि आईपीसी की धारा 124 ए में राज्य विरोधी ,अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों का मुकाबला करने की क्षमता है। उनका कहना है कि अदालत की अवमानना पर दंडात्मक कार्रवाई होती है तो सरकार की अवमानना पर भी दंडात्मक कार्यवाही होनी चाहिए।

राजद्रोह कानून पर विधि आयोग का दृष्टिकोण :-

1968 में अपनी 39 वीं रिपोर्ट में विधि आयोग ने खंड को निरस्त करने के विचार को खारिज कर दिया। वर्ष 1971 की अपनी 42 वीं रिपोर्ट में विधि आयोग चाहता था कि संविधान ,विधायक और न्यायपालिका को कवर करने के लिए इस खंड का दायरा बढ़ाया जाए।

अगस्त 2018 में भारत के  विधि आयोग ने परामर्श पत्र प्रकाशित किया और उसमें सिफारिश की गई थी यह समय 124a कानून पर पुनर्विचार करने और उसे निरस्त करने का है।

राजद्रोह कानून में सुधार :-

देशद्रोह की परिभाषा को संकीर्ण करना चाहिए जिसमें केवल भारत की क्षेत्रीय अखंडता और देश की संप्रभुता जैसे विषय शामिल होने चाहिए।

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