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नई शिक्षा नीति के एक साल पूरे होने पर

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नई शिक्षा नीति कहते हैं कि जो आपने सीखा है, उसे भूल जाने के बाद जो रह जाता है, वो ही शिक्षा है। शिक्षा ही सबसे शक्तिशाली हथियार है, जिसे आप दुनिया बदलने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। देश में बड़ा बदलाव लाना हो, तो सबसे पहले शिक्षा नीति बदला जाता है। नई शिक्षा नीति 2020 को घोषित किए हुए एक वर्ष हो गया है। लेकिन इस नीति को परिस्थितियों ने उसे उस तरह से लागू नहीं होने दिया। जिस तरह से होनी चाहिए थी। न स्कूल खुले और न ही कॉलेज, क्लास बंद रहा। विकल्प ऑनलाइन 90 फ़ीसदी छात्रों के पास आनलाइन सुविधा नहीं रही। कोरोना के कारण 10वीं और 12वीं के छात्रआंतरिक मूल्यांकन और पिछले वर्षों के अंकों के अनुपात के आधार पर पास/फेल किए गए। ऐसा हो सकता है कि आने वाले दिनों में भी कोरोना की संभावित लहरों से नई शिक्षा नीति को पूरी तरह से अमल में ना लाया जा सके।

नई शिक्षा नीति के एक साल पूरे होने पर


नई शिक्षा नीति के एक साल पूरे होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में गांधी जी के इस दर्शन में आधुनिक और आत्मनिर्भर भारत का मंत्र भी जोड़ दिया है। इसे प्रधानमंत्री ने राष्ट्र निर्माण के महायज्ञ का एक अहम स्तंभ बताया और ये भी कहा कि हम भविष्य में कितना आगे जाएंगे। यह बात इस बात पर निर्भर करती है कि हम वर्तमान पीढ़ी को कैसे शिक्षा दे पा रहे हैं। इस संबोधन का मतलब निकालने तो उम्मीद यही है कि नई शिक्षा नीति जब पूरी तरह से धरातल पर उतरेगी, तब देश को एक नए युग से साक्षात्कार करेंगी

नई शिक्षा नीति के बजट को बढ़ाना होगा

जाहिर सी बात है कि शिक्षा नीति को बेहतर तरीके से लागू करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार को शिक्षा बजट बढ़ाना ही होगा। एक साल हो गया है, लेकिन शिक्षा का बजट कहीं बढ़ा ही नहीं? तो भी ऐसी शिक्षा नीति पर विचार ही करना है, क्योंकि देश की शिक्षा व्यवस्था में वैश्विक स्तर पर बदलाव लाने को है। हालांकि कागज पर ही सही क्रांतिकारी शिक्षा नीति नजर आती है। ‘यूसीजी’और ‘तकनीकी शिक्षा बोर्ड’ (एआईसीटीई) जैसी जड़ीभूत संस्थाओं को खत्म कर शिक्षा के लिए नया संस्थान बनाने की बात भी करता है।
फिलहाल करोना महामारी के कारण शिक्षा की अवधारणा पूरी तरह से बदल गई है।पिछले करीब डेढ़ साल से शिक्षण संस्था बंद है और अध्ययन अध्यापन की पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन हो गई है। ऐसे में पढ़ाई का समय स्क्रीन टाइम में बढ़ोतरी कर रहा है। इसके बावजूद इस दौरान परिस्थितियों से तालमेल बनाने के लिए शिक्षा मंत्रालय की ओर से कई प्रयास हुए हैं।

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नई शिक्षा नीति में हिंदी पर संस्कृत भाषा को थोपा आ जाना

दरअसल संस्कृत तीसरी भाषा के रूप में और साथ ही एक अनिवार्य विषय के रूप में उत्तर भारत में लगातार पढ़ाई जा रही हैं। इसके परिणाम डराने वाले रहे हैं। हिंदी पर संस्कृत थोप दिए जाने से स्कूली भाषा और लोक भाषाओं के बीच स्थानीय विभाजन हो गया है। स्कूली हिंदी,अंग्रेजी और संस्कृत के रूप में तीन अपरिचित भाषाओं का बोध बच्चों के ऊपर डाला गया है। समाज के अति संपन्न वर्ग के बच्चों को छोड़कर यह भाषा सभी को असफल और अशिक्षित बनाने का काम कर रही है। हालांकि उत्तर प्रदेश में 2018 से 2020 के 3 वर्षों में लगभग 30 लाख छात्र हिंदी बोर्ड की परीक्षाओं में फेल हुए हैं। विश्व के 235 स्वतंत्र देशों में से 100 देशों ऐसे हैं। जिनकी कुल आबादी तीस लाख से कम है। चूंकि अवधि, बुंदेली,बृज और भोजपुरी को छोड़कर जिस हिंदी को जनगणना में मातृभाषा बताया गया। उसमें इतनी बड़ी संख्या में छात्रों के असफल होने का मतलब भाषा नियोजन और शिक्षा व्यवस्था का असफल होना है। ऐसे में एक और तस्वीर एन्वल स्टेटस आफ एजुकेशन रिपोर्ट के आंकड़ों में देखी जा सकती है। सन् 2016 और 2018 में उत्तर प्रदेश में कक्षा पांच के 75 और 65 प्रतिशत बच्चे कक्षा दो के अस्तर की हिंदी नहीं पढ़ पाए। ऐसे ही कक्षा आठ के लगभग 45 और 40 प्रतिशत बच्चे कक्षा दो के अस्तर का पाठ नहीं पढ़ पाये।

नई शिक्षा नीति की सबसे बड़ी विशेषता

नई शिक्षा नीति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ‘आलोचनात्मक सोच व प्रयोगात्मक मूलक ज्ञान’के विकास पर बनती है। पुरानी शिक्षा नीति समाजशास्त्र वाले को समाजशास्त्र और साहित्य वाले को साहित्य में ही बंद रखती थी। लेकिन इस नीति के तहत साइंस वाला साहित्य, दर्शन, कला, या किसी भी अन्य को पड़ सकता है। कला, साहित्य वाले चाहे तो इकोनॉमिक्स, साइंस, गणित या फिर समाजशास्त्र को भी पड़ सकते है। यह उचित भी है क्योंकि आज कोई एक अनुशासन पर्याप्त नहीं रह गया है।

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