अरविंद घोष : सन 1906 में पूर्ण स्वाधीनता का विचार देने वाला चिंतक, दार्शनिक क्रांतिकारी तथा आध्यात्मिक गुरु ।

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अरविंद घोष जिन्होंने भारत को पूर्ण स्वतंत्रता का विचार दिया :-

महान चिंतक, विचारक ,दार्शनिक, क्रांतिकारी अरविंद घोष

क्या आप जानते हैं कि भारत की पूर्ण स्वाधीनता का विचार देने वाले क्रांतिकारी गुरु अरविंद घोष हैं । जिन्होंने यह विचार 1906 में दिया था। जिन्हें पूर्ण स्वाधीनता का महान चिंतक, विचारक , आध्यात्मिक गुरु माना जाता है । यह एक ऐसे इंसान थे जिन्हें स्वदेश की शिक् को नया आकार और रुप दिया था और प्रमुख बात यह है कि यह काम उन्होंने ब्रिटिश शासन काल में किया । इन्होंने भारतीय शिक्षा पद्धति को नया रूप दिया और मानव सेवा को इन्होंने परम धर्म बताया। भारत के आध्यात्मिक चिंतन की शुरुआती चिंगारी इन्हीं को कहा जाता है । श्री अरविंद घोष जी का जन्म 15 अगस्त 1872 में हुआ था । इनके पिता के. डी. घोष और उनकी माता का नाम सोमलता था  । अरविंद घोष जीने दार्जिलिंग की लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल से अपनी प्रारंभिक शिक्षा को पूरा किया और फिर 7 साल की उम्र में शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए वहां लंदन में सेंट पॉल स्कूल और कैंब्रिज के किंग्स कॉलेज में उन्होंने पढ़ाई की। इसी दौरान इन्होंने आई सी एस के लिए तैयारी करने लगे और सिविल सेवा परीक्षा को पास किया लेकिन इन्होंने घुड़सवारी की परीक्षा देने से इनकार कर दिया।

वंदे मातरम समाचार पत्र का में दिया था पूर्ण स्वाधीनता का विचार :-

क्रांतिकारी अरविंद घोष बड़ौदा की देशी रियासत में रहे प्रोफेसर

सन 1893 में लंदन से भारत वापस लौट आए फिर 13 वर्षों तक बरोदा की देसी रियासत में वहां के महाराजा को अपनी सेवाएं दी।ये सेवा बरोदा के कॉलेज में प्रोफेसर के रूप में थी। इसी बीच ये रिवॉल्यूशनरी सोसाइटी में भी शामिल हो गए और गुप्त रूप से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ काम करने लगे और फिर इनकी मुलाकात 1902 में अहमदाबाद के कांग्रेस सत्र में बाल गंगाधर तिलक से हुई और उनकी अद्भुत और क्रांतिकारी व्यक्तित्व को देखकर भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ने का मन बना लिया। इसके बाद एक वाघा, जतिन बनर्जी और सुरेंद्र नाथ टैगोर से मिले। 1905 में हुए बंगाल विभाजन के बाद क्रांतिकारी आंदोलन में इनका नाम जोड़ा गया। 1908 से 1909 में उन पर अलीपुर बम कांड मामले में राजद्रोह का मुकदमा चला। 1906 में बंगाल विभाजन के तुरंत बाद ही अरविंद ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। वह कलकत्ता चले गए और वहां राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रमुख नेताओं में पहचाने जाने लगे । वह भारत के पहले राजनीतिक नेता जिन्होंने अपने वंदे मातरम समाचार पत्र से में पूर्ण स्वतंत्रता का विचार दिया था। इन्हें राजद्रोह के आरोप में अलीपुर जेल में डाला गया। इस प्रकार उनका जीवन बिल्कुल बदल गया।

अलीपुर जेल से निकलने के बाद अरविंद घोष का जीवन बिल्कुल बदल गया :-

जेल में रहने के बाद उनका जीवन बदल गया था। अब वह गीता पढ़ते थे। यह कहा जाता है कि अलीपुर में भगवान श्री कृष्ण के दर्शन हुए और अध्यात्मा के संत की तरह हो गए थे। जब वह जेल से बाहर आए तो 1910 में पुदुचेरी चले गए। और यहां उन्होंने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त की। उन्होंने अरविंद आश्रम औरोविले की स्थापना की थी। और काश वाहिनी नामक रचना की और उन्हें ऐसी कई रचनाएं की। सन 1916 में वह दोबारा कांग्रेस में शामिल हुए और ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल के साथ जुड़ गए। अपने कारावास के समय पांडिचेरी में आश्रम स्थापित किया और भेद उपनिषद ग्रंथों पर टीकाएं लिखी और योगी व महर्षि कहलाए । इन्होंने विदेशी सामान का बहिष्कार किया और स्वतंत्रता के तरीके बताए । यदि इनके विचारों पर विचार किया जाए तो इन्होंने ऐसी शिक्षा पद्धति का विचार किया जिसमें बहुत तेज आध्यात्मिक, मानसिक और आत्मा के स्तर पर विकास कर सकें। उनका कहना था कि शिक्षा मानव मस्तिष्क और आत्मा की शक्ति का विकास करती है और ज्ञान शक्ति चेतना  को जागृत करती है।

ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल के साथ रहे अरविंद घोष

अरविंद घोष अपने उम्र के आखिरी पड़ाव में प्रधानाचार्य भी बने और शिक्षा से संबंधित कई विचार दे गए :-

उन्होंने घोषणा की कि माना सांसारिक जीवन में भी देवी शक्ति को प्राप्त कर सकता है उनका मानना था कि मानव भौतिक जीवन व्यतीत करते हुए तथा अन्य मांगों की सेवा करते हुए अपने मानस को अति मानव तथा स्वयं को अति मानव में परिवर्तित कर सकता है उनका मानना था कि यह सारी बातें केवल शिक्षा द्वारा ही संभव हो शकील राष्ट्रीय आंदोलन में लगे विद्यार्थियों को शैक्षिक सुधार प्रदान करने की लिए कोलकाता में एक राष्ट्रीय महाविद्यालय स्थापित किया इससे अरविंद जी को डेढ़ सौ रुपए में प्रधानाचार्य नियुक्त किया गया अरविंद जी के लिए भारत फिर नदियां जल भूभाग ही नहीं हे भारत को वह भारत मां कहते थे यह दर्पण उनकी शिक्षा पद्धति में भी दिखाई देता है यदि राष्ट्रवाद की बात करें तो इन्होंने राष्ट्रवाद को अध्यात्म और मानवता से जोड़ा है इनके अनुसार मानव कितना भी भिन्न क्यों ना हो परंतु राष्ट्रप्रेम उन्हें एकता में बांध देता है। वह सर्व धर्म संभाग में विश्वास करते थे। विश्व संघ निर्माण का समर्थन करते थे। वे कहते हैं माना एकता प्रकृति की देन है इसलिए जातिवाद को ना देख कर मानवीयता करें। ऐसे भारत मां के वीर सपूत को नमन है पांडिचेरी में दिसंबर 1950 को इनका निधन हो गया।

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