Humanity Wins! Haslu Mohammad: मुसलमान शख्स ने अपने हिन्दू दोस्त की बचाई जान , दे दी अपनी किडनी भी

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Humanity Wins! Haslu Mohammad: हेडलाइन को पढ़ते ही गालिब का एक शेयर याद आता है, ” मजहब-धर्म ना पूछिए ग़ालिब, बस गले मिलने दीजिए, सुना है कि सब के लहू का रंग एक जैसा ही होता है…”। अब ग़ालिब के इस शेर को वाकई में साकार कर दिखाया है पश्चिम बंगाल के उत्तरी दिनाजपुर जिले के रहने वाले हसलू मोहम्मद (Haslu Mohammad) नामक शख्स ने। हसलू ने हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल कायम करते हुए अपने हिंदू दोस्त को जिवन दान देने के लिए अपनी एक किडनी दान देने का फैसला किया है।

हिंदू दोस्त की जान बचाने के लिए दान कर दी किडनी भी

Humanity Wins! Haslu Mohammad हाल ही में हसलू मोहम्मद ने राज्य के स्वास्थ्य विभाग में आवेदन देकर किडनी दान करने के लिए मंजूरी भी मांगी थी।हसलू के आवेदन के आधार पर स्वास्थ्य विभाग ने स्थानीय पुलिस को जांच का आदेश भी दिया ताकि इस बात का पता लगाया जा सके कि हसलू अपनी किडनी को पैसों के लिए तो नहीं बेच रहे है। लेकिन पुलिस जांच में यह साफ हो गया कि हसलू मोहम्मद ने किसी भी प्रकार का सौदा नहीं किया है। पुलिस भी अब जल्द से जल्द ही  इससे संबंधित रिपोर्ट स्वास्थ्य विभाग को सौंप देगी।

कंपनी में साथ करते थे काम

Humanity Wins! Haslu Mohammad हसलू मोहम्मद और अचिंत्य बिस्वास (Achintya Biswas) 6 साल पहले एक छोटी सी फाइनेंस कंपनी में एजेंट थे और दोनों एक साथ काम किया करते थे। काम करते करते ही दोनों में दोस्ती भी हो गई और दो साल पहले ही हसलू ने नौकरी भी छोड़ दी थी और अब खुद वे अपना बिजनेस करते हैं लेकिन काम का साथ छूट जाने के बावजूद भी हसूल और अचिंत्य की दोस्ती कायम रही थी।

Humanity Wins! Haslu Mohammad जब हसलू को यह पता चला कि उसके दोस्त को उसकी मदद की जरूरत है और उसकी किडनी भी खराब हो गई है। हसलू मोहम्मद को जब इस बात का इल्म हुआ कि उसके दोस्त को फौरी तौर पर किडनी ट्रांसप्लांट कराने की जरूरत है,  हसलू ने आव देखा न ताव औरअपनी एक किडनी देने का फैसला कर लिया ताकि उसके दोस्त को  जीवन दान मिल सके। हसलू का कहना है कि मानव का जीवन ही सबसे बहुमूल्य है और धर्म अलग होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है,

हमारी रगों में बहने वाला खून तो एक ही है ना। हसलू कहते हैं कि मैं अपनी एक किडनी के सहारे अपनी जिंदगी काट सकता हूं, लेकिन मेरे दोस्त को अपनी एक किडनी देकर उसे नया जीवन दे सकता हूं।

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मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

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हसूल और अचिंत्य की दोस्ती पर हम यह कह सकते हैं कि, ” मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।” हसलू की बेगम मनोरा को जब यह बात मालूम हुई तो वह कहने लगी कि वह अपने पति के इस फैसला का सम्मान करती हैं। क्योंकि जो एक इंसान को इंसान के लिए करना चाहिए वहीं उनके पति कर रहे हैं। हसलू के 5 और 7 साल के दो बेटे हैं। कुछ दिनों पहले ही में 28 साल के अचिंत्य को डायलिसिस के लिए हॉस्पिटल में भर्ती किया गया है।

अचिंत्य का एक 8 साल का बेटा है और उनका यह कहना है कि” हसलू ने मेरी सिर्फ मेरी जान बचाने के लिए इतना बड़ा कदम उठाया है। मैं और मेरी फैमिली उनका यह एहसान जिंदगीभर नहीं चुका पाएंगे क्योंकि अगर हसलू आगे नहीं आता तो मेरे जाने के बाद मेरा पूरा परिवार ही बिखर जाता।”

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