Success Story: मंजिल उन्हीं को मिलती, जिनके सपनों में जान होती है। पंखों से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है। यह लाइन कन्नौज के हाजी मसरूर पर बिल्कुल फिट बैठती है। उन्होंने गरीब बच्चों को ही पढ़ाने का सपना देखा। लड़कियों को पढ़ाने के लिए प्रेरित भी किया। लेकिन एक वक्त ऐसा भी था जब पढ़ाई के साथ उन्हें बीड़ी बनाकर पेट भरना पड़ता था। गरीबी को पास से देखा, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। अपनी मेहनत एवं संघर्षों के बाद से स्कूल खोला।
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बता दें कि कन्नौज के हाजी मसरूर का जन्म वर्ष 1972 में एक गरीब परिवार में हुआ था। हालांकि पिता अहमद रजा बीड़ी बनाकर अपने परिवार का पेट भरते थे। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। बचपन से मसरूर पिता के कामों में हाथ बटाने लगे। पढ़ाई के साथ ही साथ वह बीड़ी बनाते हैं। ताकि परिवार का खर्च भी आसानी से चल सके। लेकिन मसरूर को पढ़ाई का बहुत ही शौक था। वह सिर्फ हमेशा बीड़ी बनाना नहीं चाहते थे। उन्होंने अपनी पढ़ाई आगे भी जारी रखी। मगर आगे की पढ़ाई के लिए काम करना भी जरूरी था। ताकि कुछ पैसों का भी जुगाड़ हो जाए।
वर्ष 1986 में मसरूर कमालगंज के फिरोज इंटर कॉलेज में क्लास 9 में एडमिशन ले लिया। वो एक किराए के कमरे में रहते थे। पार्ट टाइम बीड़ी बनाते थे। हालांकि एक इंटरव्यू में मसरुर बताते हैं कि 1 दिन गुरु जी ने हमें बीड़ी बनाते हुए देखा। उन्होंने हमारी मदद भी की। वह हमें प्राइमरी बच्चों को ट्यूशन दिलवा दी। इसी बीच वह एक स्कूल खोलने का सपना देखने लगे। जहां पर गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जा सके। मसरूर के लिए ये सपना पूरा करना बिल्कुल भी आसान नहीं था।
ट्यूशन पढ़ाकर किसी प्रकार मसरूर ने परास्नातक की डिग्री हासिल की। वर्ष 1994 में वापस गांव आ गए। उनके पास कोई भी काम नहीं था। ऐसे में दोबारा से बीड़ी बनाने का काम भी शुरू कर दिया। वो बीड़ी लपेटते वक्त यह सोचा करते थे कि क्या हमेशा बीड़ी बनाता रहूंगा और एक दिन ऐसे ही बुढ़ा होकर मर जाऊंगा। मसरूर बीड़ी बनाकर काम भर का पैसा निकाल लेते थे। वह अपने काम से संतुष्ट नहीं थे। उनके अंदर कुछ अलग ही करने का जुनून था। लेकिन बचत के नाम पर उनके पास 500 रुपए भी उनकी जेब में नहीं था। उस दौरान भी टाइम निकाल कर बच्चों को मुफ्त ही पढ़ाते थे।
फिर उनकी मुलाकात कयामुद्दीन से हुई, जिन्होंने उनकी बहुत ज्यादा मदद की। उन्होंने उन्हें एक कमरा दिलवाया। जहां पर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगे। मसरूर यह बताते हैं कि पहले ही साल उन्हें 45 बच्चे पढ़ाने के लिए मिल गए। फिर साल बीतता गया। बच्चों की तादाद भी बढ़ती गई। इसके बाद से मशरूम ने प्राइमरी स्कूल की मान्यता ले ली। उनकी स्कूल में गरीब बच्चों को भी मुफ्त में पढ़ाया जाने लगा।
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गौरतलब है कि उन्होंने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। ढेर सारा मेहनत किया। वर्ष 2001 में मशरूम ने इंटरमीडिएट तक की मान्यता ले ली। उस समय उनके इस स्कूल में 1750 बच्चे पढ़ने लगे थे। उसके बाद से स्कूल से मिलने वाली बचत रकम से एक जमीन खरीदी। वहां पर स्कूल के लिहाजा से बिल्डिंग बनवाई। उनके कॉलेज का नाम डॉक्टर जाकिर हुसैन कॉलेज हैं। उसके प्रबंधक उनके साथी कयामुद्दीन अहमद खां है।
Success Story of Haji Masroor अपने जीवन में इनका बहुत ही ज्यादा योगदान मानते हैं। आज उनके स्कूल में 4500 से ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं। वह अपने स्कूल के प्रिंसिपल हैं। जबकि उन्होंने लड़कियों की पढ़ाई पर भी जोड़ दिया। जगह-जगह पर कैंप लगाकर बालिकाओं की पढ़ाई के लिए उनके अभिभावकों को जागरूक भी किया। आज उनके स्कूल में लगभग 1500 बच्चियां भी पढ़ती हैं।